सेममुखेम नागराजा मन्दिर

प्रसिद्ध नागतीर्थ सेममुखेम रमोली पट्टी, तहसील प्रताप नगर जनपद टिहरी गढ़वाल सीमान्त क्षेत्र उत्तरकाशी जनपद के मिलान पर समुद्र तल से लगभग 8000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह स्थान श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम पड़ाव व गुप्त निवास के रूप में जाना जाता है इस स्थान तक पहुंचने के लिए ऋषिकेश, नरेन्द्रनगर, चम्बा, टिपरी, पीपलडाली, होते हुए लम्बगांव कोडार मुखेम, मणवागी से सेम मंदिर जिसमें लगभग 3 कि. मी. पैदल यात्रा तय करनी पड़ती है। उत्तरकाशी से चैरंगीखाल, कोडार, मुखेम, मणवागी होते हुए भी सेम मंदिर तक पहंुचा जाता है।

प्राचीनकाल में आर्य, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग, खस शक, किरात, कोल, भील, हूण तथा द्रविड़ जातियों का निवास गढ़वाल में रहा है जिनमें नाग जाति एक प्रभावशाली मानी जाती है, जिसका इस क्षेत्र में सबसे अधिक प्रभाव रहा होगा। इस जाति का राष्ट्रीय चिह्न नाग माना जाता है। गढ़वाल के 52 गढ़ों में नागपुरगढ़, वांगरगढ़ और रैकागढ़ नागवंशी राजाओं के गढ़ थे। नाग जाति ने एक समय सम्पूर्ण भारत पर राजसत्ता प्राप्त कर ली थी।

पुराविद् डाॅ. कठोच के मध्य हिमालय की कला से ज्ञात होता है अनेक शक्तिशाली नागवंशी राजाओं में पुष्कर, तक्षक, महापदम, अश्वतर, कम्बज, हिशिरा ने अपने राज्य स्थापित किये थे। उत्तराखण्ड की अलकनन्दा उपत्यका में नागों की अनेक बस्तियां होने के प्रमाण मिलते हैं। नाग पूजा की प्राचीनता सिन्धु सभ्यता के मुहरोें से ज्ञात होती है। ब्राह्मण परम्परा में शिव एवम् विष्णु के नाग रूप में पूजने का विधान ज्ञात होता है। हिमालय के मध्य भाग में भी लौकिक देवता के रूप में नाग पूजा होती है। इस की पुष्टि उत्तराखण्ड के अधिकांश गांवों में नाग मंदिरों से होती है। इन्हें ग्राम देवता व क्षेत्र देवता भी कहते है। गढ़वाल क्षेत्र में नागराजा, नगेला, नाग, दूधाधारी नागों के आदि नामों से नाग की पूजा की जाती है। ढोलक, थाली बजाकर भी नाग देवता को नचाने की परंम्परा उत्तराखण्ड में पायी जाती है।

पाण्डुकेश्वर में शेषनाग, नागनाथ में पुष्करनाग, सेममुखेम नागराजा, दशौली में तक्षक नाग, पोखरी में नागनाथ, नीतिघाटी में लोदिया नाग, नागपुर में वासुकी नाग टिहरी, उत्तरकाशी जनपदों में कालिंगनाग, भदूरा में हुणनाथ आज भी पूजे जाते है।श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के सर्वाधिक लोकप्रिय अवतारों में माने जाते है।

ऐसी मान्यता है कि शेषनाग ने राम के समय लक्ष्मण के रूप में तथा कृष्ण के समय बलराम के रूप में अवतार लिया। कृष्ण को भारत के अनेक राज्यों में अलग- अलग नामों से पूजा जाता है। केदारखण्ड में श्रीकृष्ण को नागराजा के नाम से संबोधित किया गया है। गढ़वाल में शिव व शक्ति के मंदिरों के बाद अधिक संख्या में नागराजा मंदिर मिलते हैं। मान्यतानुसार श्रीकृष्ण ने जब कालिया नाग को यमुना से अन्यत्र चले जाने को कहा तो कालिया नाग ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना कर अपने लिए उपयुक्त स्थान मांगा। श्रीकृष्ण ने कलिया नाग को सेम मुखेम का रमणीक स्थान बताया। तब से कालिया नाग सेम मुखेम आकर निवास करने लगे। ऐसी मान्यता है कि महाभारत के युद्ध के बाद श्रीकृष्ण सेममुखेम में आकर रहने लगे। उस समय रमाली गढ़ में गंगू रमोला गढ़पति थे। श्रीकृष्ण ने उनसे कुछ भूमि मांगी। परन्तु गंगू रमोला ने भूमि देने से इन्कार कर दिया। श्रीकृष्ण ने गंगू रमोला की सम्पूर्ण भूमि, पशु, धन, सम्पति ऐश्वर्य नष्ट कर दिया। दोनों का युद्ध भी हुआ युद्ध में हारने के पश्चात् गंगू रमोला ने श्रीकृष्ण की वास्तविक शक्ति को पहचान कर श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी और श्रीकृष्ण का मंदिर बनवाया जो आज भी सेममुखेम में गंगू रमोला द्वारा निर्मित माना जाता है। कुछ समय पश्चात् श्रीकृष्ण गौलोक धाम चले गये। सन्त गोपाल मणि जी द्वारा सप्तसेमों को ही गौलोक धाम माना जाता है। यहां गुप्त रूप में निवास करते है।

ऐसी मान्यता है कि गंगू रमोला ने सेममुखेम क्षेत्र में सात मंदिरों का निर्माण करवाया था। जिसमें प्रकटासेम (सेममुखेम), मुखेम, तलवला सेम, सतरंजू सेम, काला सेम, गरगला सेम के नामों से प्रसिद्ध है। गुप्त सेम व मुखेम गांव के मंदिर भक्तों के दर्शनार्थ मौजूद हैं। सेम नागराजा के मन्दिर के गर्भगृह में सर्व प्रथम नागराजा शिला के दर्शन होते है। जिसे स्वयंभू रूप से प्रकट माना जाता है। शिला के निकट राधाकृष्ण की प्रतिमा जो बाद में स्थापित की गयी होगी। बगल में हनुमान जो प्रतिष्ठापित है। नागराजा शिला के ऊपर ताम्र स्वरूप के नाम स्थित हैं। आज भी यहां पर भक्तों द्वारा चांदी व ताबें के नाग चढ़ाये जाते हैं। इसी मंन्दिर के दाहिने तरफ गंगू रमोला, उसकी रानी मैनावती व पुत्र सिटुआ-विटुआ की प्रतिमायें हैं। मुख्य मन्दिर गर्भगृह से शिला के नीचे के भाग से जल का स्रोत हैं जिसे मंन्दिर पुजारी ‘मंगारी का पानी‘ कहते हैं। मन्दिर के निकट धर्मशालायें हैं। यहां के पुजारी मुखेम गांव के सेमवाल ब्राहमण हैं। प्रति दिन ढोलवादन से देवों को जागृत किया जाता है, उसके बाद शिला पूजन, विष्णू सहस्रनाम पाठ मन्दिर पुजारी द्वारा किया जाता है। पूजा सामग्री में श्रीफल, चावल, घी, गुड़, आटा आदि का प्रयोग किया जाता है।

हर तीसरे वर्ष 11 गते मार्गशीर्ष को यहां पर कृष्ण जात के रूप में एक भव्य मेला आयोजित किया जाता है। सेम मन्दिर (प्रकटासेम) से लगभग 4 किमी0 नीचे की तरफ मन्दिर के पुजारियों का गांव मुखेम है। मान्यता है कि गंगू रमोला के मुखेमगांव में सर्वप्रथम मंन्दिर निर्माण किया था। नागराजा की शीतकालीन पूजा इसी मन्दिर में होती है। मन्दिर में देवता की रजत डोली, रजत छत्र, रजत मुदगर निशान आदि रखे जाते है। मन्दिर में चाँदी का एक पौराणिक ढोल है जिसे औजी द्वारा पूजा के समय बजाया जाता है। मुखेम क्षेत्र में फिक्वाल देवता के शाप से आज भी गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में भिक्षा मांगने जाते हैं। इन भिक्षुक ब्राहमणों में प्रसि़द्ध ज्योतिषी भी होते है।

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