बदरीनाथ धाम

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‘‘बहुनि सन्ति तीर्थानी दिव्य भूमि रसातले। बद्री सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यतिः।। अर्थात
स्वर्ग, पृथ्वी तथा नर्क तीनों ही जगह अनेकों तीर्थ स्थान हैं, परन्तु बद्रीनाथ जैसा कोई तीर्थ न कभी था, और न ही कभी होगा।

बद्रीनाथ अथवा बद्रीनारायण मन्दिर उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में अलकनन्दा नदी के तट पर स्थित है। यह हिंदू देवता विष्णु को समर्पित मंदिर है और यह स्थान इस धर्म में वर्णित सर्वाधिक पवित्र स्थानों चार धामो में से एक है।

भौगोलिक दृष्टि से यह स्थान हिमालय पर्वतमाला के ऊँचे शिखरों के मध्य, गढ़वाल क्षेत्र में, समुद्र तल से 3133 मीटर (10279 फीट) की ऊँचाई पर स्थित है। मन्दिर वर्ष के छह महीनों (अप्रैल के अंत से लेकर नवम्बर की शुरुआत तक) की सीमित अवधि के लिए ही खुला रहता है।

बद्रीनाथ मन्दिर में हिंदू धर्म के देवता विष्णु के एक रूप ‘‘बद्रीनारायण” की पूजा होती है। यहाँ उनकी 9 मीटर लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में समीपस्थ नारद कुण्ड से निकालकर स्थापित किया।

हिमालय में स्थित बद्रीनाथ क्षेत्र भिन्न-भिन्न कालों में अलग नामों से प्रचलित रहा है। स्कन्दपुराण में बद्री क्षेत्र को ‘‘मुक्तिप्रदा” के नाम से उल्लेखित किया गया है। जिससे स्पष्ट हो जाता है कि सत युग में यही इस क्षेत्र का नाम था। त्रेता युग में भगवान नारायण के इस क्षेत्र को ‘‘योग सिद्ध”, और फिर द्वापर युग में भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन के कारण इसे ‘‘मणिभद्र आश्रम” या ‘‘विशाला तीर्थ” कहा गया है। कलियुग में इस धाम को ‘‘बद्रिकाश्रम” अथवा ‘‘बद्रीनाथ” के नाम से जाना जाता है।

बद्रीनाथ नाम की उत्पत्ति पर एक कथा भी प्रचलित है, जो इस प्रकार है – मुनि नारद एक बार भगवान् विष्णु के दर्शन हेतु क्षीरसागर पधारे, जहाँ उन्होंने माता लक्ष्मी को उनके पैर दबाते देखा। चकित नारद ने जब भगवान से इसके बारे में पूछा, तो अपराधबोध से ग्रसित भगवन विष्णु तपस्या करने के लिए हिमालय को चल दिए। जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बद्री के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि ‘‘हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा।

एक जनश्रुति के अनुसार श्री नारायण थालिंगगढ़ में देवताओं से पूजित थे, इस बुढेरू मुल्क से भगवान निकल पड़े। बौद्ध तांत्रिकों ने उनका पीछा किया तो भगवान चबर गाय की पूंछ के नीचे छुप गए। आज भी बदरीनाथ मंदिर में चबर गांय की पूंछ से भगवान को पंखा किया जाता है। यहां से भगवान वाणी गांव के पास एक पत्थर पर शिशु रूप में लेटे थे कि शिव-पार्वती वहां से गुजरे। शिशु को देख पार्वती का मातृत्व जाग गया और शिशु को उठाकर अपने घर कैलाश ले गयी। कहा जाता है कि एक दिन शिव-पार्वती विहार के लिए चल दिए। शिशु रूपी नारायण ने अंदर से दरवाजे बंद कर दिए। शिव पार्वती के लौटने पर दरवाजे अंदर से बंद थे। शिव ने पार्वती से शिशु का रहस्य खोला कि-वह साधारण शिशु नहीं, बल्कि स्वयं नारायण है। अब यह दरवाजा नहीं खोलेगा तथा न ही इस स्थान को छोडे़गा। पार्वती क्रोधित होकर नारायण को शाप दे देती है कि तुमने हमारे साथ छल किया है। जाओ यहां तुम्हें खाने को चना व खिचड़ी तथा पहनने के लिए उर्णसूत्र ही मिलेगा। अंदर से शिशु की आवाज आई कि-माता जी, हम चने की दाल व खिचड़ी खाकर तथा ऊन की चोली पहनकर ही रहेंगे, लेकिन इस स्थान को नहीं छोडें़गे। यही कारण है कि बदरीनाथ मंदिर में आज भी भगवान को चने की दाल और खिचड़ी का भोग लगाने की प्रथा है। कपाट बंद होने के दिन भगवान बदरीविशाल में इंसान और भगवान के अनोखे रिश्ते के दर्शन होते है। इस रिश्ते को सामने से देखने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ कपाट बंद होते समय लगती है। कपाट बंद होते समय इस रिश्ते का आभास सामने देखा जा सकता है। जब भगवान बदरीविशाल के लिए स्थानीय कन्याओं द्वारा कंबल तैयार कर उसे उन्हें अर्पित किया जाता है और इसी कंबल को भगवान विष्णु शीतकाल में ओढ़े रखते है।

बद्रीनाथ मन्दिर का उल्लेख विष्णु पुराण, महाभारत तथा स्कन्द पुराण समेत कई प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। कई वैदिक ग्रंथों में भी मन्दिर के प्रधान देवता, बद्रीनाथ का उल्लेख मिलता है। स्कन्द पुराण में इस मन्दिर का वर्णन करते हुए लिखा गया हैः ‘‘बहुनि सन्ति तीर्थानी दिव्य भूमि रसातले। बद्री सदृश्य तीर्थं न भूतो न भविष्यतिः।। ‘‘, अर्थात स्वर्ग, पृथ्वी तथा नर्क तीनों ही जगह अनेकों तीर्थ स्थान हैं, परन्तु फिर भी बद्रीनाथ जैसा कोई तीर्थ न कभी था, और न ही कभी होगा।
महाभारत में बद्रीनाथ का उल्लेख करते हुए लिखा गया है – ‘‘अन्यत्र मरणामुक्तिः स्वधर्म विधिपूर्वकात। बदरीदर्शनादेव मुक्तिः पुंसाम करे स्थिता।।” अर्थात अन्य तीर्थों में तो स्वधर्म का विधिपूर्वक पालन करते हुए मृत्यु होने से ही मनुष्य की मुक्ति होती है, किन्तु बद्री विशाल के दर्शन मात्र से ही मुक्ति उसके हाथ में आ जाती है।

आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा ज्योतिर्मठ की स्थापना के बाद भगवान बदरी नारायण की पूजा वहां के आचार्य ही करते थे। ज्योतिर्मठ के पहले शंकराचार्य त्रोटकाचार्य हुए। उसके पश्चात लगभग ग्यारहवीं सदी तक यहां शंकराचार्य नियुक्त होते रहे। तब से पंद्रहवीं सदी तक के शंकराचार्यों का कोई उल्लेख इतिहासमें नहीं मिलता है। पुनः 15वीं सदी से संवत् 1833 त दंडी स्वामियों को यहां का शंकराचार्य नियुक्त किया जाता रहा। इसके बाद कोई दंडी स्वामी न रहने से बदरीनाथ की पूजा गढ़वाल नरेश ने आचार्यों के सहायक जो कि केरल प्रांत के नम्बूद्री ब्राहमण होते थे करने लगे और आज भी वही कर रहे है। इन्हें रावल कहा जाता है।

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